हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता 04 | साहित्यिक पत्रकारिता के विविध रूप और भेद |

हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता (4)



अब तक के विवेचन से यह तो स्पष्‍ट हो ही जाता है कि साहित्यिक पत्रकारिता मात्र तकनीक नहीं, बल्कि भाषिक और विचारधारात्मक चेतना भी है। भाषिक संवेदना और वैचारिक चेतना के साथ ही वह साहित्य और अन्य ललित कलाओं की तरह खुद भी एक सर्जनात्मक और कलात्मक रूप है। कला भी और विज्ञान भी जैसा कि ऊपर कहा गया है, साहित्यिक पत्रकारिता एक कला है— एक ऐसी कला जो अपने सर्वोच्च स्तरों पर सर्जनात्मक साहित्य से होड़ करती है। कह सकते हैं कि कला और सर्जनात्मक संगठन का समन्वित प्रयास लेखक अगर लिख कर सृजन करता है, तो एक श्रेष्‍ट साहित्यिक पत्रकार अपनी संगठनात्मक क्षमता, संपादन सामर्थ्य और वस्तुनिष्‍ट आलोचनात्मक विवेक से साहित्य को कलात्मक गतिशील रूप, नवोन्मेश की चेतना और लोकोन्मुख प्रगतिशील दिशा दे सकता है। कहना न होगा कि इन कलात्मक और संगठनात्मक साहित्यिक प्रयासों को भी व्यापक अर्थ में सर्जनात्मक ही कहा जाएगा। 

इस दृष्टि से देखें तो भारतेन्दु हरिश्‍चन्द्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी, प्रेमचंद, निराला, रामविलास शर्मा, यशपाल, हरिशंकर पएासाई और नामवर सिंह की साहित्यिक पत्रकारिता किस लेखक के सर्जनात्मक और कलात्मक प्रयासों से कम है, इसीलिए, और ठीक इन्हीं अर्थों में, श्रेष्‍ठ साहित्यिक पत्रकारिता एक विज्ञान भी है। कहना न होगा कि अपने खास अर्थों में आज के संचार क्रांति के उत्तर-औद्योगिक परिदृश्‍य में साहित्यिक पत्रकारिता भी— सामाजिक चेतना को एक सुनिश्चित रूप एवं दिशा देने में तथा साथ ही लोकमत की सूक्ष्म प्रक्रिया को प्रभावित करने में अपना विशेष योगदान देती है। सामान्य पत्रकारिता की तुलना में साहित्य और साहित्यिक पत्रकारिता की यह भूमिका, प्रक्रिया के स्तर पर, अधिक जटिल एवं सूक्ष्म तथा प्रभाव की दृष्टि से अधिक स्थायी किन्तु लगभग अदृश्‍य होती है। साहित्यिक पत्रकारिता लोकमत-निर्माण और लोक-शिक्षण का कार्य भी परोक्ष ढंग से करती है। इस प्रकार वह समाज की विचार-चेतना के विकास में और व्यापक सांस्कृतिक एवं सामाजिक जनरुचि के परिश्कार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है स वह भी संचार-क्रांति की कार्य प्रणाली और नियमों – अवधारणाओं का कमोबेश अनुसरण करती है। एक सामान्य पत्रकार और संपादक की तरह साहित्यिक पत्रकार और संपादक को भी आज की अधुनातन प्रिंटिंग टेक्नोलॉजी, कलात्मक रूप-सज्जा और मूल्यांकन में वैज्ञानिक वस्तुपरकता का अभ्यस्ज्ञान की जात तथा विज्ञान की जानकारी से लैस होना चाहिए। एक कुशल साहित्य संपादक और साहित्यिक पत्रकार के पास वैज्ञानिक की वस्तुनिष्‍ठता और सर्जक कलाकार की अंतष्चेतना, दोनों का होना लगभग अनिवार्य है। 

साहित्यिक पत्रकारिता के विविध रूप और भेद 


साहित्यिक पत्रकारिता के इस स्वरूप-विस्लेशण और चरित्र-निरुपण के बाद, उसके उन प्रमुख भेदों पर भी विचार करना प्रासंगिक होगा जिनके आधार पर हम उसकी विभिन्न शाखाओं अथवा अलग- अलग क्षेत्रों के आधार पर उसका विभाजन इस प्रकार किया जा सकता है —- 

  • 1) प्रस्तुतिकरण के आधार पर ;
  • (2) अवधिपरक विभाजन ; 
  • (3) विधापरक विभाजन ;
  •  (4) भाषिक आधार पर ;
  •  (5) प्रकाशकीय आधार पर ; तथा 
  • (6) विचारधारापरक विभाजन 


  1. प्रस्तुतिकरण के आधार पर विभाजन 


यह सुज्ञात है कि आज समूची पत्रकारिता का विभाजन प्रस्तुति के आधार पर, दो अलग- अलग सर्वथा स्वतंत्र क्षेत्रों में हो चुका है: (क) प्रिंट मीडिया ; और (ख) इलेक्ट्रॉनिक मीडिया। इसी तरह, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी, इसी आधार पर तीन भिन्न क्षेत्रों में सक्रिय है: (क) रेडियो (ख) टेलीविज़न और वेब-मीडिया (न्यू-मीडिया)। समग्र जनसंचार और पत्रकारिता का ही एक अभिन्न अंग होने के कारण साहित्यिक पत्रकारिता का भी प्रस्तुतिकरण के आधार पर इन स्वतंत्र क्षेत्रों में विभाजन किया जा सकता है। इन क्षेत्रों में प्रस्तुत की जाने वाली श्रव्य ( ऑडियो) और दृश्‍य-श्रव्य (ऑडियो- विज़ुअल) साहित्यिक सामग्री साहित्यिक पत्रकारिता है।

 इनके अंतर्गत विभिन्न साहित्यिक कार्यक्रम प्रसारित किए जाते हैं। पहले यह सामग्री पत्र-पत्रिकाओं में छपती थी ; अब रचना पाठ और पुस्तक समीक्षा से लेकर साहित्यिक सभा-सम्मेलनों की रपटें, साहित्यकारों के बीच वाद-विवाद या संवाद और बहस या विमर्ष तहा प्रतिष्ठित बड़े लेखकों से साक्षात्कार, उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर कार्यक्रम आदि रेडियो, टेलीविज़न और इंटरनेट पर प्रसारित होते हैं। यू-ट्यूब आदि पर स्थायी रूप से भी उपलब्ध रहते हैं। 

2) अवधिपरक विभाजन: 

इसी तरह साहित्यिक पत्रकारिता का अवधिपरक विभाजन भी किया जा सकता है। दैनिक और साप्ताहिक समाचारपत्रों के विपरीत साहित्यिक पत्रिकाएँ प्रायः मासिक, द्विमासिक, त्रैमासिक और कभी छमाही या सालाना संकलनों के रूप में ही होती हैं। साप्ताहिक ”मतवाला”- जैसे कुछ अपवाद भी होते हैं, जैसे कि पहले दैनिक ”जनयुग” और अब ”जनसत्ता” के साप्ताहिक साहित्यिक परिशिष्‍टों के रूप में दैनिक अखबारों में भी हमें अपवाद-स्वरूप गंभीर साहित्यिक पत्रकारिता के दर्शन होते हैं। अवधि के आधार पर साहित्यिक पत्रिकाओं और साहित्यिक पत्रकारिता का विभाजन मुख्यतः तीन तरह से किया जा सकता है: मासिक, द्विमासिक और त्रैमासिक। 

लेकिन यह विभाजन केवल नियमित रूप से निकलने वाली साहित्यिक पत्रिकाओं पर ही लागू हो सकता है। लघु-पत्रिका आंदोलन के दौरान जो हज़ारों नहीं भी , तो सैंकड़ों साहित्यिक पत्रिकाएँ निकलीं, वे प्रायः ”अनियतकालीन” ही निकलीं स जो निश्चित अवधि वाली नहीं थीं, वे भी आगे चलकर अनियतकालीन बन गईं और अंततः बंद भी हो गईं स जो निश्चित अवधि में अब भी नियमित रूप से निकल रही हैं, उनमें मासिक ”हंस” (हाल ही में मृत्यु से पूर्व तक सं0 राजेन्द्र यादव) तथा ”पखी” (सं0 प्रेम भारद्वाज) तथा द्विमासिक ”पुस्तकवार्ता” (सं0 भारत भारद्वाज) और त्रैमासिक ” आलोचना”(प्र0सं0 नामवर सिंह)–जैसी प्रतिनिधि पत्रिकाओं का उल्लेख किया जा सकता है। उसी तरह अनियतकालीन पत्रिकाओं के प्रतिनिधित्व में ”पहल” (सं0 ज्ञानरंजन) और ”दस्तावेज़” (सं0 विस्वनाथ प्रसाद तिवारी) का ज़िक्र अकिया जा सकता है। इनमें से ”पहल” का हाल ही में 98 वाँ अंक आया है और ”दस्तावेज़” का 145 वाँ। 

3) विधापरक विभाजन: 

विधापरक विभाजन के अंतर्गत साहित्यिक का विभाजन मुख्यतः चार तरह से किया जा सकता है: (अ) कहानी पत्रिका, (ब) कविता संबंधी पत्रिका, (स) आलोचना और पुस्तक समीक्षा संबंधी पत्रिका तथा (द) सर्वविशय- संग्रह परक पत्रिका। आजकल साहितय की सभी विधाओं को कम या ज़्यादा स्थान देने वाली पत्रिकाएँ ही अधिक हैं। फिर भी, किसी एक मुख्य विधा को प्रमुखता देने के साथ थोड़ी बहुत अन्य सामग्री या कसी दूसरी विधा की चंद रचनाओं को भी शामिल करने वाली साहित्यिक पत्रिकाएँ भी खासी बड़ी संख्या में हैं। लेकिन पुस्तक समीक्षाएँ तो प्रायः प्रत्येक पत्रिका का अनिवार्य अंग हैं। 

किसी एक ही विधा दृढ़ता से केंद्रित पत्रिकाएँ अपवादस्वरूप ही कही जा सकती हैं ; जेसे कि पुस्तक समीक्षाओं की पत्रिकाएँ, ”समीक्षा” (सं0 गोपाल राय) और ”पुस्तकवार्ता” तथा कहानी की पत्रिकाएँ ”कहनी” और ”नई कहानियाँ”। कमलेश्‍वर के संपादन में निकलने वाली ”सारिका” भी कहानी-केंद्रित पत्रिका ही थी, जो बंद हो चुकी है। इसी तरह कविता-केंद्रित पत्रिका ”कविता” (सं0 जुगमिंदर तायल और भगीरथ), नेमिचंद्र जैन की ”नटरंग” नाटक” केंद्रीय पत्रिका में थी। आलोचना” है तो मुख्यतः समालोचनाओं और पुस्तक समीक्षाओं की पत्रिका, लेकिन उसमें प्रायः साहित्य, संस्कृति और राजनीति से संबंधित देशी-विदेशी विद्वानों के लेख ( अनुवाद भी) तथा कभी-कभार कोई साक्षात्कार या चंद मौलिक अथवा अनूदित कविताएँ भी स्थान पा जाती हैं। 

4) भाषिक आधार पर विभाजन:

कुछ साहित्यिक पत्रिकाएँ हिन्दी के साथ हिन्दी के साथ ही उसकी जनपदीय बोलियों, यथा बुंदेली, छत्तीसगढ़ी, अवधी, बघेली, भोजपुरी, मैथिली, ब्रज, नेमाड़ी, पहाड़ी, हरियाणवी, मारवाड़ी और राजस्थानी आदि की रचनाएँ भी छपती हैं। कुछ पत्रिकाएँ इन जनपदीय उपभाषाओं-बोलियों में निकलती हैं, जिन्हें हम विशाल हिन्दी साहित्यिक पत्रकारिता की व्यापक परिधि में गिन सकते हैं। कुछ पत्रिकाएँ हिन्दी के साथ ही उर्दू और अंग्रेज़ी के भी हिस्सों के साथ द्विभाषी निकलती हैं। पहली मिसाल ”शेष” (सं0 और दूसरी महात्मा गाँधी अंतर्राष्‍ट्रीय हिन्दी विश्‍वविद्यालय की पत्रिका ”हिन्दी: ”भ्प्छक्प्” (सं0 ममता कालिया) कही जा सकती हैं। 

5) प्रकाशकीय आधार पर विभाजन: 

प्रकाशकीय आधार पर भी साहित्यिक पत्रिकाओं का विभाजन इस तरह किया जा सकता है: अ) दृढ़्तापूर्वक पूर्णतः साहित्य को समर्पित पत्रिकाएँ, जो मुख्यतः प्रायः ”लघु पत्रिकाओं” की श्रेणी में आती हैं और इन पर विस्तार से चर्चा की भी जा चुकी है। ब) प्रकाशकों, विश्‍वविद्यालयों, साहित्यिक संस्थाओं या ऐसे ही प्रतिष्‍ठानों से निकलने वाली साहित्यिक पत्रिकाएँ। मिसाल के लिए ”आलोचना” (राजकमल प्रकाशन), ”पुस्तक वार्ता” और ”बहुवचन” (म0गाँ0 अं0 वि0वि0वर्धा), ”माध्यम” (हिन्दी साहित्य सम्मेलन) तथा ”नटरंग (नटरंग मटरंग प्रतिश्ठान)- जैसी पत्रिकाएँ,। स) उद्योग के स्तर पर व्यावसायिक इज़ारेदार घरानों की मिल्कियत ( ओनरशिप) में निकलने वाली पत्रिकाएँ, मिसाल सपम ”ज्ञानोदय” ( अब ”नया ज्ञानोदय” नाम से सारिका और ”धर्मयुग” (साहू जैन का ”टाइम्स गु्रप”), ”साप्ताहिक हिन्दुस्तान” (बिड़ला गु्रप) तथा द) सरकारी पत्रिकाएँ, लेकिन इस श्रेणी में प्रायः निकृष्‍ट किस्म की पत्रिकाएँ होती है। फिर भी जब कोई अच्छा साहित्यकार उनका संपादक बन जाता है तो कुछ अंक अच्छे निकल जाते हैं। मिसाल के लिए ”पूर्वग्रह” (सं0 अषोक वाजपेयी), ”साक्षात्कार” (सं0 सोमदत्त) और ”आजकल” (सं0 पंकज बिष्‍ट) का नाम उल्लेख किया जा सकता है। साहित्य अकादमी की ”समकालीन भारतीय साहित्य” भी 

6) विचारधारापरक विभाजन: 

विचारधारा के आधार पर भी साहित्यिक पत्रिकाओं का विभाजन दो तरह का विभाजन है —- 

1) राजनीतिक तौर पर ; जैसे कि भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी से जुड़े लेखकों की ”पहल”, ”वसुधा”, ”क्यों”, ” ओर”, आदि पत्रिकाएँ माकपा से जुड़ी ”उत्तरार्ध”, ”कलम” और ”नया पथ” बहुत पहले भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी (अविभाजित) ने हिन्दी, उर्दू और अंग्रेज़ी में ”नया साहित्य”, ”नया अदब” और ”इंडियन लिटरेचर” नाम से अत्यंत श्रेष्‍ठ साहित्यिक पत्रिकाएँ प्रकाशित की थीं। लेकिन ये सभी अल्पायु ही साबित हुईं। दूसरी तरफ, (ख) साहित्यिक आंदोलनों के आधार पर भी विभाजन किया जा सकता है। जैसे कि प्रगतिवादियों का ”हंस” ( अमृत राय), ”विप्लव” (यशपाल), ”वसुधा” (हरिशंकर परसाई) और समालोचक (रामविलास शर्मा)–जैसी साहित्यिक पत्रिकाएँ तो थीं, तो प्रगति-विरोधिायों की ”प्रतीक” (अज्ञेय्), ”निकश” (धर्मवीर भारती) और अन्य परिमलीय, ”नयी कविता” (जगदीश गुप्त एवं अन्य परिमलीय गुट) आजकल विचारधारात्मक आधार पर साहित्यिक पत्रिकाओं का विभाजन पाश्‍चात्‍य अस्तित्ववादी, विखंडनवादी, रूपवादी–जैसी तमाम विचारधाराओं और आंदोलनों से प्रभावित और उनकी प्रचारक पत्रिकाओं तथा प्रगतिशील वामपंथी और भूमंडलीकरण की विरोधी तथा प्रतिबद्ध और प्रतिरोध की संघर्षधर्मी साहित्यिक पत्रिकाओं के बीच किया जा सकता है।


हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता (5)



हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता की शुरुआत, जैसा कि पहले भी उल्लेख किया जा चुका है, भारतेन्दु हरिश्‍चंद्र की पत्रिका ”कविवचनसुधा” के 15 अगस्त, 1861 ई0 से, बनारस से प्रकाशन के साथ होती है। भारतेन्दु न केवल आरंभकर्ता थे, बल्कि उन्होंने अपनी नेतृत्वकारी प्रतिभा से साहित्य और पत्रकारिता के बिखरे हुए सारे सूत्रों को समेट कर एक नए युग का सूत्रपात किया। भारतेन्दु की साहित्यिक पत्रकारिता से ही हिन्दी साहित्य की नई-से-नई गद्य-विधाओं की शुरुआत हुई। ”भारतेन्दु-समग्र” के संपादक हेमंत शर्मा ने यह ठीक लिखा है कि, “आज की पत्रकारिता का ऐसा कोई रूप नहीं जिसका बीज भारतेन्दु में न हो’’। उन्होंने साहित्य को देशहित से जोड़कर, अपनी पत्रकारिता के माध्यम से, भाषा-शैली और लोकप्रियता के ऊँचे तथा कलात्मक मानदंड स्थापित किए।

साहित्यिक पत्रकारिता के हमारे अब तक के विवेचन से, सबसे महत्वपूर्ण बात यह उभरकर सामने आती है कि वह प्राचीनकाल के यूनानियों की उस दोधारी कटार की तरह पैदा हुई थी जिसे ग्रीक भाषा में ”स्तिलुस” (STILUS) कहा जाता था। यह लिखने और घोंपने, दोनों कामों में प्रयुक्त होती थी। हमारे 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की क्रांतिकारी चेतना के साथ विकसित इस साहित्यिक पत्रकारिता की एक धार यदि देश को गुलाम बनाने वाले ब्रिटिश साम्राज्यवाद की ओर तनी थी, तो दूसरी धार उनके पिट्ठुओं, देषी रजवाड़ों, ज़मींदारों, महाजनों और धर्म के ठेकेदार पाखंडियों, रूढ़ियों तथा सामाजिक कुरीतियों की ओर तनी थी। हमारे अब तक के वर्णन, विश्‍लेषण और विवेचना से साहित्यिक पत्रकारिता का स्वरूप, उसके क्षेत्र और वर्गीकरण के साथ ही, उसके इतिहास की भी एक हल्की सी रूपरेखा उभरती हुई दृष्टिगोचर हुई होगी। वस्तुतः हमारे इस प्रबंध के प्रस्तुत पाँचवें और अंतिम खंड की विषय-वस्तु भी यही है।


साभार : श्याम कश्यप

Post a Comment

0 Comments
* Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.