हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता 03 | साहित्यिक पत्रकारिता का चरित्र स्वरूप | लघु-पत्रिका आंदोलन दैनिक समाचारपत्रों में साहित्यिक पत्रकारिता |

हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता (3) 




साहित्यिक पत्रकारिता का सामान्य पत्रकारिता से अंतर और उसका विशिष्‍ट स्वरूप अब तक कुछ उभर आया होगा। समाचारपत्र (या समाचार पत्रिकाएँ) जहाँ सूचना पर बल देते हुए सामान्य ज्ञान प्रेषित करते हैं, वहीं साहित्यिक पत्रकारिता का उद्देष्य सांस्कृतिक चेतना और परिवेश में परिश्कार लाते हुए पाठक को विषिश्ट ज्ञान प्रशिष्‍ट करना होता है। इसलिए इस क्षेत्र में प्रशिष्‍ट साहित्य-विवेक और विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सूक्ष्म एवं अंतरंग परिचय की आवश्‍यकता होती है। साहित्य और पत्रकारिता का अंतर रेखांकित करते हुए नेमिशरण मित्तल बताते हैं कि, “साहित्य का मूल लक्षण उसका शास्वत स्वरूप तथा चिरंतन तत्व है, किन्तु पत्रकारिता तात्कालिकता, सामयिकता और क्षणभंगुरता के आयामों में कैद होती है, वैसे तो साहित्य में भी सरसता और सुबोधता पर बल दिया जाता है, लेकिन उसके प्रशिष्‍ट काला-चरित्र के कारण जटिलता तथा दुर्बोधता और अनेकार्थकता को भी दुर्गुण नहीं माना जाता, साहित्यिक पत्रकारिता की भाषा शैली पर इसका कुछ-न-कुछ असर तो पड़ता ही है।

 सामान्य पत्रकारिता जहाँ लोकमत के निर्माण और उसकी अभिव्यक्ति का माध्यम होती है, वहीं साहित्यिक पत्रकारिता लोकरंजन, लोक-शिक्षण और जनरुचि के परिश्कार का प्रयास करती है स इसीलिए उसका स्वरूप वैचारिक, संवेदनात्मक और मनोरंजनपरक होता है, लेकिन यहाँ ”संवेदनात्मक” का अर्थ तथाकथित ”शुद्ध साहित्य” के झंडावरदारों की समाज-निरपेक्ष और विचारधारा से परहेज प्रचारित करने वाली कृत्रिम और रहस्यात्मक संवेदना से नहीं है। इसी तरह ”मनोरंजन” का अर्थ व्यावसायिक और बाजारू पत्रिकाओं के फूहड़ और विकृतिपूर्ण समाज-विरोधी और सस्ते मनोरंजन से नहीं है। कहना न होगा कि साहित्यिक पत्रकारिता का उद्देश्‍य मुक्तिबोध की ”ज्ञानात्मक संवेदन और संवेदनात्मक ज्ञान” की अवधारणा को अपना आदर्श मान कर चलना चाहिए स श्रेष्‍ठ-साहित्य के आदर्शों और उद्देश्‍यों से भिन्न आदर्श और उद्देश्‍य साहित्यिक पत्रकारिता के हो ही नहीं सकते। दोनों एक न होते हुए भी अन्योन्याश्रित हैं।

 साहित्यिक पत्रकारिता का चरित्र स्वरूप 


 साहित्यिक पत्रकारिता के चरित्र-निरूपण और उसके प्रशिष्‍ट स्वरूप पर विचार करेत हुए हमें गंभीर साहित्यिक पत्रिकाओं को फिल्म, संगीत, राजनीति और धर्म आदि की तरह ”साहित्य” का भी धंधा करने वाली व्यावसायिक पत्रिकाओं से अलगाकर देखना चाहिए। यह अंतर आज़ादी के पहले से रहा है। यह कहना भी गलत नहीं होगा कि ऐसा अंतर साहित्यिक पत्रकारिता के जन्म के समय से ही रहा है। शुरु से ही साहित्यिक पत्रिकाएँ सदैव सत्ता-तंत्र और व्यवसाय-तंत्र से जुड़ी या उनकी हितपोशक प्रतिष्‍ठानी और सेठाश्रित पत्रिकाओं से अलग, बल्कि विरोधी रही हैं, भले ही इस विरोध तथा प्रतिरोध की शैली उसका स्वरूप कितना ही भिन्न-भिन्न क्यों न हो।

यह अंतर ”उदंतमार्तंड”. ”सुधाकर”, ”प्रजाहितैशी” या ”पयाम-ए-आज़ादी” का ”बनारस अखबार” जैसे पत्रों से साफ झलकता है। यह अंतर भारतेन्दु की ”कविवचनसुधा” और धड़फले के हाथ में जाने के बाद की स्तरहीन और पतित ”कविवचनसुधा” में और भी प्रत्यक्ष है। यह अंतर ”सरस्वती” (महावीर प्रसाद द्विवेदी के संपादन-काल की), ”माधुरी”, ”मतवाला”, ”सुधा”, ”चाँद”, ”हंस”(प्रेमचंद के संपादन-काल से लेकर अमृत राय-रामविलास शर्मा-शिवदानसिंह चौहान के प्रगतिवादी-काल तक का), ”विप्लव”, ”नय साहित्य”, ”रूपाभ” सहित ऐसी ही अनेक छोटी-बड़ी साहित्यिक पत्रिकाओं तथा बाजारू और व्यावसायिक पत्रिकाओं के बीच सदैव रहा है। कहना न होगा कि हमारा ” हिन्दी साहित्य का इतिहास” इन महत्वपूर्ण पत्रिकाओं से ही अस्तित्व में आया है।

आज़ादी के बाद यह अंतर ”कल्पना”, (बदरी विशाल पित्ती एवं अन्य), ”समालोचक” (रामविलास शर्मा), ”प्रतीक” (अज्ञेय), ”नया पथ” (यशपाल एवं अन्य), ”कृति” (श्रीकांत वर्मा), ”आलोचना” (नामवर सिंह), ”वसुधा” (हरिशंकर परसाई), ”कहानी” (श्रीपत राय), ”लहर” (प्रकाश जैन और मनमोहिनी) और ”नई कहानियाँ” (कमलेश्‍वर, फिर भीष्‍म साहनी) जैसी श्रेष्‍ठ साहित्यिक पत्रिकाओं तथा व्यावसायिक घरानों की प्रतिष्‍ठानी और सेठाश्रयी पत्रिकाओं –”धर्मयुग”, ”साप्ताहिक हिन्दुस्तान”, ”ज्ञानोदय”, ”सारिका”, ”निहारिका” और ”कादम्बिनी” आदि के बीच बड़ा स्पष्‍ट रहा है। यह अंतर सारी दुनिया में और विश्‍व की प्रायः अभी भाषाओं की साहित्यिक पत्रिकाओं और राजसत्ता (भले ही उसे ”जनसत्ता” का झूठा नाम दें) या धनसत्ता की होतपोशक प्रतिष्‍ठानी पत्रिकाओं में रहा है। इस अंतर के कारण ही दुनिया-भर में साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में ”लघुपत्रिका” या ” लिटिल मैगज़ीन” आंदोलन होते रहे हैं।

लघु-पत्रिका आंदोलन 


हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता के संदर्भ में जब उपर्युक्त अंतर और फलस्वरूप विचारधारात्मक संघर्ष बहुत तीव्र हो गया तो सन् 60 के बाद साहित्यिक और व्यावसायिक पत्रिकाएँ एक-दूसरे के विरुद्ध एक बड़ी लड़ाई में भिड़ गईं, यह लड़ाई कमोबेश आज भी जारी है, इस सातवें दशक के मध्य में ही हिन्दी में ”लघु-पत्रिका” आंदोलन के रूप में ऐसा जबर्दस्त साहित्यिक विस्फोट हुआ कि सेठाश्रयी और व्यावसायिक प्रतिष्‍ठानी पत्र-पत्रिकाओं का पूरी तरह भट्ठा बैठ गया। उनमें श्रेष्‍ठ रचनाओं और श्रेष्‍ठ साहित्यकारों का टोटा पड़ गया।

 हिन्दी के युवा और युवतर लेखकों-कवियों और आलोचकों ने इन पत्रिकाओं के खिलाफ सफल्क और ज़ोरदार ”बहिष्‍कार” अभियान चलाया, यहाँ तक कि प्रतिष्ठित बुजुर्ग कवि-लेखक भी इन पत्रिकाओं में छपने से हिचकिचाने लगे, इनमें छपने वाले लेखक साहित्यिक मान्यता और साहित्यिक प्रतिष्‍ठा के लिए तरसते रह गए, जो प्रतिष्ठित और लोकप्रिय लेखक इनमें छपता था, उसे पूरे साहित्य-जगत का विरोध और बहिष्‍कार झेलना पड़ता था।

 हिन्दी का यह लघु-पत्रिका आंदोलन इतना लोकप्रिय और प्रभावी सिद्ध हुआ कि प्रायः सभी भारतीय भाषाओं में साहित्यिक लघु-पत्रिकाओं का ज्वार आ गया। स्मरणीय है कि ऐसे ही विचारधारात्मक और सर्जनात्मक संघर्ष में से ही यूरोप में ”प्रोटेस्ट मूवमेंट” उभरकर सामने आए थे तथा विश्‍व-भर में छा गए थे, हिन्दी में उभरा यह ”लघु-पत्रिका आंदोलन” अब तो एक तरह से साहित्येतिहास और साहित्यिक पत्रकारिता के इतिहास का भी अंग बन चुका है। कालांतर में साहित्यिक पत्रिकाओं के च्वरूप में भारी परिवर्तनों के बाद भी उनके लिए ”लघु-पत्रिका” या ”अव्याओकर लोक-प्रचलितवसायिक” पत्रिका नाम ही सर्वमान्य और रूढ़ होकर लोक-प्रचलित हो चुका है। वास्तव में, ऐसी पत्रिकाएँ ही साहित्यिक पत्रिकाएँ हैं, मानी जाती हैं। नया दौर: ”वाम वाम वरम दिशा …….”

सन् साठ के बाद एक जबर्दस्त आंदोलन की तरह आरंभ हुआ लघु-पत्रिकाओं का यह अभियान अनेक उतार-चढ़ावों के बाद, सत्तर और अस्सी के दशकों में प्रगतिशील और वामपंथी रुख अख्तियार कर लेता है। इसकी परिणति इस रूप में होती है कि एक ओर जहाँ उपर्युक्त प्रतिष्‍ठानी पत्रिकाएँ या तो बंद हो जाती हैं अथवा अप्रासंगिक होकर अपना प्रभाव खो देती हैं, वहीं ” आलोचना” (नामवर सिंह एवं नंद किशोर नवल) के अलावा ”पहल” (ज्ञानरंजन), ”लहर” (प्रकाश जैन और मनमोहिनी), ”प्रगतिशील वसुधा” (कमला प्रसाद), ”उत्तरार्ध” (सव्यसाची), ”कथा” (मार्कण्डेय), ”कलम” (चंद्रबली सिंह), ” ओर” (विजेन्द्र्), ”क्यों” (मोहन श्रोत्रिय और स्वयं प्रकाश),” आरम्भ” (नरेश सक्सेना और विनोद भारद्वाज),”धरातल” (नंदकिशोर नवल), ”कथा” (मार्कण्डेय), ”समासम्भ” (भैरवप्रसाद गुप्त),”इसलिए” (राजेश जोशी) और ”कसौटी” (नंदकिशोर नवल)– जैसी श्रेष्‍ठ साहित्यिक पत्रिकाएँ अपने दौर की साहित्यिक पत्रकारिता का प्रतिनिधित्व करती हैं। कुछ पुरानी और प्रतिष्ठित लघु-पत्रिकाएँ तथा कई नई पत्रिकाएँ चंद अविस्मरणीय विशेषांक प्रकाशित कर धीरे-धीरे पृष्‍ठभूमि में चली गईं।

दैनिक समाचारपत्रों में साहित्यिक पत्रकारिता 


प्रायः सभी दैनिक, पाक्षिक और साप्ताहिक अखबारों में हमें छिट-पुट साहित्यिक रूझान उनके रविवारीय संसकारणों में तो दिखता है, लेकिन इस क्षेत्र में उनका कोई महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय योगदान नहीं दिखता, अपवाद स्वरूप, प्रमुख प्रगतिशील दैनिक ”जनयुग” में न केवल यह साहित्यिक-विचारधारात्मक रूझान स्पशष्‍ट नज़र आता है, बल्कि उसका रविवारीय परिशिष्‍ट मुख्यतः साहित्य को ही समर्पित होता था, कुल चार पृष्‍ठों के इस परिषिष्‍ट में एक विचारधारत्मक अग्रलेख और छोटे से बच्चों के कोने के अलावा शेष प्रायः तीन-साढ़े तीन पृष्‍ठ साहित्य को ही समर्पित होते थे।


 ”जनसत्ता” ने भी अपने रविवारीय परिषिश्ट में इस परंपरा का मंगलेश डबराल के संपादन में निर्वाह किया। इसीतरह जब तक राजेंद्र माथुर रहे ”नवभारत टाइम्स” ने भी कुछ स्थान साहित्यिक पत्रकारिता के लिए दिया। लेकिन कालांतर में इस श्रेष्‍ठ परंपरा का अवसान हो गाया, नब्बे के दशक के मध्य तक भूमंडलीकरण की आँधी में साहित्य और साहित्यिक पत्रकारिता के पैर उखड़ने लगे स धीरे-धीरे आज हम एक ऐसे विचार-शून्य — या कहें प्रायोजित मीडिया के प्रायोजित विचारों में डूबते -उतराते अपढ़ समाज और सांस्कृतिक-शून्‍यता की ओर बह रहे हैं, एक ऐसा समाज जहाँ उपभोक्तावाद के दलदल की ओर ढकेलती अपसंस्कृति की गहरी ढलान है।

अंतिम उल्लेखनीय प्रयास 


इस स्थिति से निकलने की कोशिश में देश भर के उत्तर भारत के हिन्दीभाषी, प्रमुख साहित्यकारों-संपादकों की 29-30 अगस्त,1992 को कलकत्ता में साहित्यिक लघु-पत्रिकाओं की पहली राष्‍ट्रीय संगोष्‍ठी हुई। इसी कड़ी में 14-15 मई, 1991 को जमशेदपुर में राष्‍ट्रीय समन्वय समिति गठित की गई। लेकिन साहित्यिक पत्रकारिता को पुनः उसके श्रेष्‍ठ और उच्चतर धरातलों पर प्रतिष्ठित कर पाने के सभी प्रयास आशातीत रूप में फलप्रद नहीं हो पाए।

मुख्य बात यह है कि ये सभी साहित्यिक पत्रिकाएँ अपने कलेवर, आकार और साज-सज्जा में भले ही ”लघु” पत्रिकाएँ थीं, अपने प्रभावी साहित्यिक मूल्यांकन, श्रेष्‍ठ रचनाओं के प्रकाशन और प्रतिभाशाली नए लेखकों की नई से नई पीढ़ियाँ तैयार करके उन्हें प्रशिक्षित करने की दृष्टि से बिल्कुल भी लघु या छोटी नहीं कही जा सकतीं स ये अपनी अंतर्वस्तु (कन्टेन्ट) और वैचारिक प्रतिबद्धता की दृष्टि से निस्संदेह बड़ी- बहुत बड़ी पत्रिकाएँ ही कही जाएँगी। अपने युग की प्रतिनिधि और भावी साहित्येतिहास का कच्चा माल, एक तरह से साहित्य रचना और मूल्यांकन के प्रशिक्षण के संस्थान, विश्‍वविद्यालय !!

 वास्तव में, ये सभी पत्र-पत्रिकाएँ सत्ता-तंत्र और व्यवसाय-तंत्र की तथाकथित ”बड़ी” और रंगीन, सेठाश्रयी, बाजारू पत्रिकाओं से भिन्न, यथार्थ में साहित्यिक पत्रिकाएँ हैं, चाहे इन्हक पत्रिकाएँ ”गैर-व्यावसायिक पत्रिकाएँ” कहा जाए या ”प्रतिष्‍ठान-विरोधी” और ”श्रमजीवा पत्रिकाएँ” कहा जाए अथवा लोक-प्रचलित ”लघु-पत्रिकाएँ” , साहित्यिक पत्रकारिता के श्रेष्‍ठ और सच्चे प्रतिमान हमें इन्हीं पत्र-पत्रिकाओं में दृष्टिगोचर होते हैं।


 संदर्भ:- 1) ”पत्रकारिता और संपादन कला”, (सं0 डॉ0 रामप्रकाश) में नेमिशरण का लेख, पृ0 116

साभार : श्याम कश्यप

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