समाचार कि अवधारणा | लेखन प्रक्रिया | समाचार कि परिभाषा | समाचार क्या है | सुभाष धुलिया |

समाचार: अवधारणा और लेखन प्रक्रिया: 

सुभाष धूलिया 

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आज यह कहा जाता है कि मानव सभ्यता सूचना युग में प्रवेश कर रही है। पिछले 50 वर्षों में संचार और सूचना के क्षेत्र में एक क्रांति आई है। आज दुनिया के किसी भी कोने में होने वाली किसी घटना की जानकारी हमे चंद पलों में मिल जाती है। हमारे जीवन में समाचार माध्यमों का महत्व बहुत बढ़ गया है। देश-दुनिया में जो कुछ हो रहा है उसकी अधिकांश जानकारियां हमें समाचार माध्यमों से मिलती हैं। यह भी कह सकते हैं कि हमारे प्रत्यक्ष अनुभव से बाहर की दुनिया के बारे में हमे अधिकांश जानकारियां समाचार माध्यमों द्वारा दिए जाने वाले समाचारों से ही मिलती है।

इसलिए प्रश्न पैदा होता है- समाचार क्या हैï? पत्रकारिता के उद्भव और विकास के पूरे दौर में इस प्रश्न का सर्वमान्य उत्तर कभी किसी के पास नहीं रहा। आज पत्रकारिता और संपूर्ण मीडिया जगत की तेजी से बदलती तस्वीर से इस प्रश्न का उत्तर और भी जटिल होता जा रहा है। लेकिन हर खास परिस्थिति और वातावरण में चंद घटनाएं ऐसी होती हैं जो समाचार बनने की कसौटी पर खरी उतरती हैं और उससे कहीं अधिक बड़ी संख्या ऐसी घटनाओं की होती है जो समाचार नहीं बन पाती। यहां समाचार से आशय समाचार माध्यमों में प्रकाशित- प्रसारित किए जाने वाले ‘‘समाचारों’’ से है।

लेकिन क्या हर घटना, समाचार है? क्या वह हर बात समाचार है जिसके बारे में पहले जानकारी नहीं थी? क्या वह सब समाचार है जिसके बारे लोग जानना चाहते हैं या जिसके बारे में लोगों को जानना चाहिए? क्या समाचार वही है जिसे एक पत्रकार समाचार मानता है? क्या वही सब समाचार हैं जिन्हें मीडिया के मालिक और संचालक समाचार मानते हैं और जिनके बारे में वे अपने ही तरह के अनुसंधान के आधार पर यह मान लेते हैं कि लोग यही चाहते हैं इसलिए यही समाचार है? समाचार निश्चय ही अपने समय के विचार, तथ्य और समस्याओं के बारे में ही लिखे जाते हैं। अनेक विद्वानों ने अपने ही ढंग से समाचार की विशेषताओं का उल्लेख किया है। हर प्रेरक और उत्तेजित कर देने वाली सूचना समाचार है। समय पर दी जाने वाली हर सूचना समाचार का रूप अख्तियार कर लेती है। किसी घटना की रिपोर्ट ही समाचार है। समाचार जल्दी में लिखा गया है। वह सब समाचार है जो आने वाले कल का इतिहास है।

 समाचार निश्चय ही कोई किस्सा-कथानक वृत्तांत और रिपोर्ट है। इसके संप्रेषण के अनेक रूप हो सकते हैं। एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को समाचार का संप्रेषण कर सकता है। इसके अलावा समाचार अनेक तरह के समाचार माध्यमों से भी प्रकाशित और प्रसारित किए जाते हैं |

एक पत्रकार के सामने भी सबसे बड़ी चुनौती यही होती है कि क्या उसने समाचार को इस तरह लिखा और प्रस्तुत किया कि वह वही अर्थ और संदर्भ अपने पाठक/दर्शक/श्रोता को प्रेषित कर पाया जो वह चाहता था। अक्सर ऐसा नहीं होता और इन दिनों तो अधिकधिक ऐसा नहीं हो रहा है। समाचार में संभावित सूचनाओं या तथ्यों के स्रोत क्या हैं इससे भी भारी अंतर पैदा होता है। सूचना स्रोत के भी सूचना देने के पीछे कुछ मकसद हो सकते हैं और होते हैं। इन मकसदों का चरित्र और स्वरूप क्या है- इस पर भी समाचार की सत्यता निर्भर करती है। अनेक मौकों पर स्रोत गलत सूचनाएं भी देते हैं जिससे समाचार निहित स्वार्थों की पूर्ति में ही अधिक सहायक होते हैं और सच्ची तस्वीर लोगों तक नहीं आ पाती।

एक पत्रकार ही किसी भी समाचार के आकार और उसकी प्रस्तुति का निर्धारण करता है। इसी तरह रेडियो और टेलीविजन में प्रस्तुतकर्ता समाचार में अपनी आवाज और हाव-भाव से भी बहुत कुछ कह सकता है। एक समाचारपत्र में एक समाचार मुख्य समाचार (लीड स्टोरी) हो सकता है और किसी अन्य समाचारपत्र में वही समाचार भीतर के पृष्ठï पर कहीं एक कॉलम का समाचार भी हो सकता है। एक टेलीविजन चैनल के लिए अमिताभ बच्चन के जन्मदिन का समाचार पहला मुख्य समाचार हो सकता है तो संभव है कि कोई अन्य चैनल इराक में युद्ध को अपनी मुख्य खबर बनाने को प्राथमिकता दे। इस तरह के अनेक कारण और कारक हैं जो समाचार रूपी संदेश के प्राप्तकर्ता को इसकी स्वीकार्यता का स्तर तय करते हैं। किसी भी पाठक/दर्शक/श्रोता की अपनी राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि होती है जिनसे उसके अपने मूल्य उपजते हैं। इसलिए हर समाचार को वह अपने ही ढंग से स्वीकार या अस्वीकार करता है। सच्चाई का उसका अपना ही एक पैमाना होता है जिस पर वह हर समाचार/संदेश की माप-तौल करता है।

समाचार के उपभोक्ता अपने मूल्यों, रुचियों और दृष्टिकोणों में बहुत विविधताएं और भिन्नताएं लिए होते हैं। इन्ही के अनुरूप उनकी प्राथमिकताएं भी निर्धारित होती हैं। हाल ही के वर्षों में समाचारों का भी एक बाजार तैयार हुआ है और एक खास बाजार के लिए एक खास समाचार होता है। एक आदर्श स्थिति में एक पत्रकार के सामने यही सबसे बड़ी चुनौती होती है कि किस तरह वह अपने ‘उपभोक्ता’ समूह (ऑडिएंस) के व्यापकतम तबके को संतुष्ट कर सके।

 समाचार की एक सर्वमान्य विशेषता यह है कि यह किसी विचार, घटना या समस्या का विवरण है। लोग सोचते हैं और विचार उपजते हैं। विभिन्न संचार माध्यमों के जरिए जब विचारों का आदान-प्रदान होता है तो हलचल पैदा होती है। इनसे नए उत्पाद पैदा हो सकते हैं। कोई नई सेवा अस्तित्व में आ सकती है। लोगों को कोई नया मकसद मिल सकता है। इसे अमन-शांति और टकराव की नई सीमाओं का निर्धारण हो सकता है। इनसे शांति और युद्ध के रास्ते बदल सकते हैं।

समाचार की परिभाषा 


लोग आमतौर पर अनेक काम मिलजुल कर ही करते हैं। सुख-दु:ख की घड़ी में वे साथ होते हैं। मेलों और उत्सवों में वे साथ होते हैं। दुर्घटनाओं और विपदाओं के समय वे साथ ही होते हैं। इन सबको हम घटनाओं की श्रेणी में रख सकते हैं। फिर लोगों को अनेक छोटी-बड़ी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। गांव, कस्बे या शहरी की कॉलोनी में बिजली-पानी के न होने से लेकर बेरोजगारी और आर्थिक मंदी जैसी समस्याओं से उन्हें जूझना होता है।

विचार, घटनाएं और समस्याओं से ही समाचार का आधार तैयार होता है। लोग अपने समय की घटनाओं, रुझानों और प्रक्रियाओं पर सोचते हैं। उन पर विचार करते हैं और इन सब को लेकर कुछ करते हैं या कर सकते हैं। इस तरह की विचार मंथन की प्रक्रिया के केंद्र में इनके कारणों, प्रभाव और परिणामों का संदर्भ भी रहता है। समाचार के रूप में इनका महत्त्व इन्हीं कारकों से निर्धारित होना चाहिए। किसी भी चीज का किसी अन्य पर पडऩे वाले प्रभाव और इसके बारे में पैदा होने वाली सोच से ही समाचार की अवधारणा का विकास होता है। किसी भी घटना, विचार और समस्या से जब काफी लोगों का सरोकार हो तो यह कह सकते हैं कि यह समाचार बनने के योग्य है।

समाचार बनने की प्रक्रिया का महत्वपूर्ण पहलू इसकी तथ्यात्मकता है। किसी की कल्पना की उड़ान कोई समाचार नहीं है। समाचार एक वास्तविक घटना है और एक पत्रकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती या दायित्व यह है कि कैसे वह ऐसे तथ्यों का चयन करे, जिससे वह घटना उसी रूप में पाठक या उपभोक्ता के सामने पेश की जा सके जिस तरह वह घटी। इस तरह के तथ्यों यानि वे तथ्य जो इस घटना के समूचे यथार्थ का प्रतिनिधित्च करते हैं, का चयन करने के लिए एक खास तरह का बौद्धिक कौशल चाहिए। इस तरह का बौद्धिक कौशल होने पर ही हम किसी को प्रोफेशनल पत्रकार कह सकते हैं।

 किसी भी घटना, विचार या समस्या का समाचार बनने के लिए यह भी आवश्यक है कि वह नया हो। कहा भी जाता है ‘न्यू’ है इसलिए ‘न्यूज’ है। समाचार वही है जो ताजी घटना के बारे में जानकारी देता है। समाचार का नया होना आवश्यक है। वह अपने ऑडिएंस के लिए नया है होना चाहिए। एक दैनिक समाचारपत्र के लिए आम तौर पर पिछले 24 घंटों की घटनाएं ही समाचार होते हैं। एक चौबीस घंटे के टेलीविजन और रेडियो चैनल के लिए तो समाचार जिस तेजी से आते हैं उसी तेजी से अनेक समाचार बासी भी होते चले जाते हैं।

किसी विचार, घटना और समस्या के समाचार बनने के लिए यह भी आवश्यक है कि लोगों की उसमें दिलचस्पी है। वे इसके बारे में जानना चाहते हों। कोई भी घटना समाचार तभी बन सकती है, जब लोगों का एक बड़ा तबका इसके बारे में जानने में रुचि रखता हो। स्वभावत: हर समाचार संगठन अपने लक्ष्य समूह (टार्गेट ऑडिएंस) के संदर्भ में ही लोगों की रुचियों का मूल्यांकन करता है। लेकिन हाल के वर्षों में लोगों की रुचियों और प्राथमिकताओं में भी तोड़-मरोड़ की प्रक्रिया काफी तेज हुई है और लोगों की मीडिया आदतों में भी परिवर्तन आ रहे हैं। इसलिए यह भी कह सकते हैं कि रुचियां कोई स्थिर चीज नहीं हैं, गतिशील हैं। कई बार इनमें परिवर्तन आते हैं तो मीडिया में भी परिवर्तन आता है। लेकिन आज मीडिया लोगों की रुचियों में परिवर्तन लाने में अधिकाधिक भूमिका अदा कर रहा है। इसलिए ऐसे अनेक समाचार आज उनके लिए रुचिकर हो सकते हैं जिनसे कल तक वे अपने आपको नहीं जोड़ते थे। संक्षेप में किसी घटना, तथ्य, विचार या समस्या समाचार में लोगों की रुचि का होना उसके समाचार बनने के लिए आवश्यक शर्त है।

 इस विवेचन के उपरांत अब हम समाचार को इस तरह परिभाषित कर सकते हैं :

समाचार किसी भी ताजी घटना, विचार या समस्या का विवरण या रिपोर्ट है जिसमें अधिक से अधिक लोगों की रुचि है। 

समाचार की इस परिभाषा में शायद कोई विवाद न हो। इसे एक तरह से समाचार की सर्वमान्य परिभाषा कहा जा सकता है। लेकिन लोगों की रुचि किन घटनाओं, विचारों या समस्याओं (आगे इसके लिए केवल घटनाओं शब्द का प्रयोग किया गया है) में है? यह रुचि क्यों होती है और इसमें परिवर्तन कैसे और क्यों आते हैं? लोगों की रुचियों और प्राथमिकताएं ही समाचार जगत और मीडिया पर होने वाले तमाम विचार-विमर्श और अनुसंधान के केंद्र में होती है। इस दृष्टिïकोण से समाचार की परिभाषा में विस्तार करना आवश्यक हो जाता है।

समाचार किसी भी ताजी घटना, विचार या समस्या की रिपोर्ट है जिसमें लोगों की रुचि हो लेकिन विभिन्न राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक माहौल में समाचार की अवधारणाएं और अर्थ भी भिन्न हो जाते हैं।

समाचारीय महत्व 

इन तमाम विविधताओं और भिन्नताओं के बावजूद किसी घटना का अपना एक समाचारीय महत्व होता है और जिसे अनेक कारक प्रभावित करते हैं। एक घटना को एक समाचार के रूप में किसी समाचार संगठन में स्थान पाने के लिए इसका समय पर सही स्थान यानि समाचार कक्ष में पहुंचना आवश्यक है। मोटे तौर पर कह सकते हैं कि उसका समायानुकूल होना जरूरी है।

 आज की तारीख के एक दैनिक समाचारपत्र के लिए वे घटनाएं समय पर हैं जो कल घटित हुई हैं। आमतौर पर एक दैनिक समाचारपत्र के हर संस्करण की अपनी एक डेडलाइन (समय सीमा) होती है जब तक के समाचारों को वह कवर कर पाता है। मसलन अगर एक प्रात:कालीन दैनिक समाचारपत्र कल रात 12 बजे तक के समाचार कवर करता है तो अगले दिन के संस्करण के लिए 12 बजे रात से पहले के चौबीस घंटे के समाचार समयानुकूल होंगे। इसी तरह 24 घंटे के एक टेलीविजन समाचार चैनल के लिए तो हर पल ही डेडलाइन है और समाचार को सबसे पहले टेलीकास्ट करना ही उसके लिए दौड़ में आगे निकलने की सबसे बड़ी चुनौती है।

इस तरह एक चौबीस घंटे के टेलीविजन समाचार चैनल, एक दैनिक समाचारपत्र, एक साप्ताहिक और एक मासिक के लिए किसी समाचार की समय सीमा का अलग-अलग मानदंड होना स्वाभाविक है, कहीं समाचार तात्कालिक है कहीं सामयिक तो कहीं समकालीन भी हो सकता है। इन तथ्यों के महत्व का निर्धारण समाचार माध्यम और पत्रकारिता लेखन के स्वभाव से होता है। यह भी कहा जा सकता है कि 24 x 7 टेलीविजन माध्यम तात्कालिक अधिक होता है तो एक समाचारपत्र का लेख सामयिक या समकालीन अधिक हो सकता है।

किसी भी समाचार संगठन के लिए किसी समाचार के महत्व का मूल्यांकन उस आधार पर भी किया जाता है कि वह घटना उसके कवरेज क्षेत्र और पाठक/दर्शक/श्रोता समूह के कितने करीब हुई। हर घटना का समाचारीय महत्व उसकी स्थानीयता से भी निर्धारित होता है। सबसे करीब वाला ही सबसे प्यारा भी होता है। यह मानव स्वभाव है और स्वाभाविक भी है कि लोग उन घटनाओं के बारे में जानने के लिए अधिक उत्सुक होते हैं जो उनके करीब होती हैं। इसका एक कारण तो करीब होना है और दूसरा कारण यह भी है कि इसका असर भी करीब वालों पर ही अधिक पड़ता है। मसलन किसी एक खास कॉलोनी में चोरी-डकैती की घटना के बारे में यहां के लोगों की रुचि होना स्वाभाविक है। रुचि इसलिए कि घटना उनके करीब हुई है और इसलिए भी कि इसका संबंध स्वयं उनकी अपनी सुरक्षा से है। अपने आस-पास होने वाली घटनाओं के प्रति लोगों की अधिक रुचि से हम सब वाकिफ हैं और समाचारों और समाचार संगठनों का अधिकाधिक स्थानीयकरण इसी रुचि को भुनाने का परिणाम है।

इसके अलावा किसी घटना के आकार से भी इसका समाचारीय महत्व निर्धारित होता है। किस कारण कोई समाचार महत्त्वपूर्ण है किसके कारण कोई अन्य समाचार महत्वपूर्ण है। अनेक मौकों पर किसी घटना से जुड़े लोगों के महत्त्वपूर्ण होने से भी इसका समाचारीय महत्त्व भी बढ़ जाता है। स्वभावत: प्रख्यात और कुख्यात अधिक स्थान पाते हैं। प्रधानमंत्री को जुखाम भी हो तो समाचार है और अन्य कोई कितने ही बुखार से ग्रसित क्यों न हों शायद समाचार नहीं बन पाए। प्रसिद्ध लोगों की छोटी-मोटी गतिविधियां भी समाचार बन जाती हैं। याद कीजिए सलमान खान पर विवेक ओबराय का गुस्सा फूटना कितनी बड़ी खबर बनी थी। इसके अलावा घटना के आकार से आशय यही है कि इससे कितने सारे लोग प्रभावित हो रहे हैं या कितने बड़े भूभाग में पहुंचा है आदि। किसी घटना का ‘प्रभाव’ भी इसके महत्त्व को निर्धारित करता है। सरकार के किसी निर्णय से अगर दस लोगों को लाभ हो रहा हो तो यह इतनी बड़ा समाचार नहीं जितना कि अगर इससे लाभान्वित होने वाले लोगों की संख्या एक लाख हो। सरकार अनेक नीतिगत फैसले लेती हैं जिनका प्रभाव तात्कालिक नहीं होता लेकिन दीर्घकालिक प्रभाव महत्त्वपूर्ण हो सकते हैं और इसी दृष्टि से इसके समाचारीय महत्त्व को आंका जाना चाहिए।

उपभोक्ता वर्ग 

आमतौर पर हर समाचार का एक खास पाठक/दर्शक/श्रोता वर्ग होता है। किसी समाचारीय घटना के इस वर्ग से भी इसका महत्त्व तय होता है। किसी खास समाचार का ऑडिएंस कौन हैं और इसका आकार कितना बड़ा है। इन दिनों ऑडिएंस का समाचारों के महत्त्व पर प्रभाव बढ़ता जा रहा है। अतिरिक्त क्रय शक्ति वाले सामाजिक तबकों, जो विज्ञापन उद्योग के लिए बाजार होते हैं, में अधिक पढ़े जाने वाले समाचारों को अधिक महत्त्व मिलता है।

हर समाचारीय घटना का महत्त्व आंकने के लिए इसके संदर्भ का विशेष महत्त्व होता है। खास तौर से महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों द्वारा दिए गए बयानों और कथनों का महत्त्व उनके संदर्भ से ही तय किया जा सकता है। 

अनेक अन्य मौकों पर महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों के बयान किसी संदर्भ में ही होते हैं और इस संदर्भ को जाने-समझे बिना कोई पत्रकार इस बयान के समाचारीय महत्त्व को नहीं आंक सकता। संदर्भ को समझने के लिए विषय की समझ जरूरी है। उदाहरण के लिए दुनिया के लगभग सभी देश आतंकवाद की भर्त्सना करते हैं। लेकिन जब भारत, इस्राइल, फिलिस्तीनी, अमेरिका या पाकिस्तान आतंकवाद की भर्त्सना करते है तो इनका अर्थ भिन्न होता है और इसे इसके संदर्भ में समझना होता है।

इन बयानों को इनके संदर्भ से काटकर कभी भी उचित समाचारीय महत्त्व नहीं दिया जा सकता। भारत की सबसे बड़ी चिंता कश्मीरी आतंकवाद है जो समय-समय पर देश के अन्य हिस्सों में भी वारदातें करता है मसलन संसद और मुंबई पर हमला। कश्मीर आतंकवाद को जिंदा रखने में पाकिस्तान की अहम भूमिका है। पाकिस्तान के समर्थन के बिना कश्मीर में आतंकवाद चलाया ही नहीं जा सकता। फिलिस्तीनीयों के लिए इस्राइल एक आतंकवादी राज्य और वहां की सरकार आतंकवादी हमले करती है। इस्राइल का मानना है कि वह फिलीस्तीनी आतंकवाद का शिकार है और उसकी हर सैनिक कार्रवाई आतंकवाद के खिलाफ होती है। अमेरिका आतंकवाद के खिलाफ युद्ध लड़ रहा है और इस युद्ध में पाकिस्तान अमेरिका का सामरिक सहयोगी है। समूचे इस्लामी और अरब राज्यों में अमेरिकी रणनीति में पाकिस्तान की अहम भूमिका है। रूस को उस आतंकवाद की चिंता है जो चेचन्या में इसे परेशान किए हुए है। इन तमाम संदर्भों में ही उपरोक्त संयुक्त बयानों के समाचारीय महत्त्व, उनमें लेखन, संपादन, शीर्षक आदि का चयन किया जा सकता है। जो पत्रकार इन संदर्भों से वाकिफ नहीं हैं वे इन घटनाओं के समाचार लिखने, संपादित करने और इनके महत्त्व को आंकने में विफल होने के लिए ही बाध्य है।

नीतिगत ढांचा 

किसी समाचार संगठन की कोई नीति होने का मतलब लेखन की स्वतंत्रता पर अंकुश है। अगर किसी मसले पर समाचार संगठन की कोई नीति है, तो इसका मतलब वह इस नीति के अनुसार ही समाचार प्रकाशित करेगा और विचारों की अभिव्यक्ति करेगा। इसलिए कोई भी समाचार संगठन कभी यह स्वीकार नहीं करेगा कि व्यापक राजनीतिक और आर्थिक मुद्दों पर उसकी कोई नीति है। लेकिन भले ही किसी सुगठित रूप में नीति न हो लेकिन हर समाचार संगठन मोटे तौर पर हर मुद्दे पर किसी नीति पर तो चलता ही है और अनेक कारक इस नीति का निर्धारण करते हैं। अनेक संपादक इसे ‘संपादकीय लाइन’ कहते हैं।

मसलन समाचारपत्रों में संपादकीय होते हैं जिन्हें संपादक और उनके सहायक संपादक लिखते हैं। संपादकीय बैठक में तय किया जाता है कि किसी विशेष दिन कौन-कौन सी ऐसी घटनाएं हैं जो संपादकीय हस्तक्षेप के योग्य हैं। इन विषयों के चयन में काफी विचार-विमर्श होता है। फिर उनके निर्धारण के बाद क्या संपादकीय स्टैंड हो क्या लाइन ली जाए यह भी तय किया जाता है और विचार-विमर्श के बाद संपादक तय करते हैं क्या रुख होगा या क्या लाइन होगी। यही स्टैंड और लाइन एक समाचारपत्र की नीति भी होती है।

वैसे तो एक समाचारपत्र में अनेक तरह के लेख और समाचार छपते हैं और आवश्यक नहीं है कि वे संपादकीय नीति के अनुकूल हों। समाचारपत्र में विविधता और बहुलता का होना अनिवार्य है। संपादकीय एक समाचारपत्र की विभिन्न मुद्दों पर नीति को प्रतिबिंबित करते हैं। निश्चय ही समाचार कवरेज और लेखों-विश्लेषणों में संपादकीय की नीति का पूरा का पूरा अनुसरण नहीं होता लेकिन कुल मिलाकर संपादकीय नीति का प्रभाव किसी भी समाचारपत्र के समूचे व्यक्तित्व पर पड़ता है। अगर कोई समाचारपत्र भूमंडलीकरण की प्रक्रिया का कट्टर समर्थक है तो वह उन तमाम समाचारों को अधिक महत्व देने की कोशिश करेगा जो उसके पक्ष में जाती हैं। समाचारों का चयन और डिस्पले भी समाचारपत्र की नीतियों को प्रतिबिंबित करते हैं। अक्सर ऐसा देखने में आता है कि संपादकीय में कोई समाचारपत्र किसी खास राजनीतिक विचारधारा और राजनीतिक पार्टी या गठजोड़ के करीब हो तो समाचारों के चयन और प्रस्तुतीकरण में भी यह इन्ही के पक्ष में खड़ा दिखाई देता है।

 समाचार संगठन की नीतियों से किसी भी समाचार संगठन की समाचार की अवधारणाएं निर्धारित होती हैं। इसी से उसकी संपादकीय-समाचारीय सामग्री का चरित्र और स्वरूप तय होता है। इसके बाद स्थान और पत्रकारीय महत्व के आधार पर किसी समाचार संगठन में समाचार अपना स्थान पाता है। इस तरह हम कह सकते हैं कि सैद्धांतिक रूप से किसी समाचारपत्र के संपादकीय ही इसकी स्टैंड, लाइन या नीति को दर्शाते हैं और बाकी लेख, विश्लेषण और बाइलाइन वाले समाचारों में वैचारिक विविधता होती है। एक संपूर्ण व्यक्तित्व के रूप में तमाम विविधताओं को प्रतिबिंबित करने के बावजूद समाचार संगठन अपनी संपादकीय नीति के अनुसार ही समाचारों को भी छापता है। निश्चय ही समाचार संगठन किसी व्यवस्था के तहत या इसके भीतर ही काम करते हैं। एक दृष्टि से मुख्यधारा के समाचार संगठन किसी भी व्यवस्था की प्रभुत्वकारी और शासक विचारधारा के ही प्रवक्ता होते हैं और इस दायरे के भीतर ही राजनीतिक विविधता का सृजन होता है। इसके अलावा समाचार संगठन के स्वामित्व से भी इसकी नीतियां तय होती हैं। पिछले कुछ समय से दुनिया भर में समाचार संगठनों के स्वामित्व के संकेंद्रीकरण के प्रभावों पर काफी चर्चा हो रही है। समाचार सामग्री और प्रस्तुतीकरण पर इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। यह तो तय है कि कोई भी समाचार संगठन अपने मालिक और उसके विचारों के खिलाफ नहीं जा सकता।

उसके बाद पिछले कुछ वर्षों में विज्ञापन उद्योग का दबाव भी काफी बढ़ गया है। मुक्त बाजार व्यवस्था के तेज विस्तार तथा उपभोक्तावाद के फैलाव के साथ विज्ञापन उद्योग का जबर्दस्त विस्तार हुआ है। समाचार संगठन अब कारोबार और उद्योग हो गए हैं और विज्ञापन उद्योग पर उनकी निर्भरता बहुत बढ़ चुकी है। इसका भी संपादकीय/समाचारीय सामग्री पर गहरा असर पड़ रहा है। समाचार संगठन पर अन्य आर्थिक सामाजिक और सांस्कृतिक दबाव भी होते हैं। किसी छोटे स्थान से छपने वाला कोई समाचारपत्र वहां के स्थानीय माफिया के खिलाफ कुछ नहीं छाप सकता। इसी तरह के कई अन्य दबाव भी इसकी नीतियों को प्रभावित कर सकते हैं। इसके बाद जो स्पेस या स्थान बचता है वह पत्रकारिता और पत्रकारों की स्वतंत्रता का है। यह उनके प्रोफेशनलिज्म पर निर्भर करता है कि वे इस स्पेस का किस तरह सबसे प्रभावशाली ढंग से उपयोग कर पाते हैं। इस पत्रकारीय स्पेस पर भी निरंतर हमले होते रहते हैं और इसे छोटा करने का प्रयास होता रहता है।

पत्रकार और उसके प्रोफेशनलिज्म के लिए सबसे बड़ी चुनौती यही है कि वह इस स्पेस की हिफाजत करे और इसका अधिकतम इस्तेमाल से इसके विस्तार का निरंतर प्रयास करता रहे। कई बार किन्हीं खास परिस्थितियों में भी यह स्पेस कम-ज्यादा होता रहता है। उन्माद की परिस्थितियों में पत्रकारीय स्वतंत्रता का जबर्दस्त ह्रास होता है चाहे वह किसी भी तरह का उन्माद क्यों न हो। 11 सितंबर, 2001 के आतंकवादी हमलों के बाद अमेरिका का उदाहरण सबसे सामने है जहां उग्र राष्ट्रवाद इस कदर हावी हो गया था कि मीडिया में असहमति का स्थान बहुत छोटा हो गया था। अनेक अवसरों पर सामाजिक वातावरण भी संपादकीय सामग्री को प्रभावित करता है। सामाजिक तनाव की स्थिति में यह प्रभाव अधिक गहरा हो जाता है।

महत्वपूर्ण जानकारियां 

अनेक ऐसी सूचनाएं भी समाचारीय होती हैं जिनका समाज के किसी विशेष तबके के लिए कोई महत्व हो सकता है। ये लोगों की तात्कालिक सूचना आवश्यकताएं भी हो सकती हैं। मसलन स्कूल कब खुलेंगे, किसी खास कॉलोनी में बिजली कब बंद रहेगी, पानी का दबाव कैसा रहेगा आदि। इस संदर्भ में कुछ क्षेत्र ऐसे भी हैं जिनमें सूचनाएं देने के अपने ही खतरे हैं। कम से कम चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में अनेक बार कुछ तरह की सूचनाएं गलतफहमियां पैदा करती हैं। यह सर्वविदित है कि अनुसंधान अनेक तरह की अवधारणाओं पर आधारित होते हैं और वैज्ञानिक अनुसंधान के नाम पर अधकचरे ज्ञान को इसमें निष्कर्ष के तौर पर पेश नहीं किया जाना चाहिए। इसके अलावा दुर्घटनाओं के मामले में भी हताहतों के नाम की जानकारी देने का अपना ही महत्व है। हालांकि अधिकांश मौकों पर नाम पता करना मुश्किल काम होता है।

लेखक उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय में कुलपति हैं. वे इग्नू और इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ मास कम्युनिकेशन में जर्नलिज्म के प्रोफेसर रह चुके हैं. एकेडमिक्स में आने से पहले वे दस वर्ष पत्रकार भी रहे हैं |

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