हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता 02 | साहित्य और पत्रकारिता | साहित्यिक रचनाओं का मूल्यांकन |

 हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता (2) 



साहित्य में आधुनिक चेतना, स्वच्छंद आत्माभिव्यक्ति और व्यक्तिगत पाठक समुदाय के विकास के साथ ही साहित्यिक पत्रकारिता का उदय हुआ था। यूरोप ही नहीं, कुछ अन्य भारतीय भाषाओं की तुलना में, हिन्दी में कतिपय विलंब से यहाँ तक कि अपनी सहोदर उर्दू की तुलना में भी कुछ विलंब से इसका कारण यह था कि अन्य भारतीय भाषाओं और उर्दू की तुलना में हिन्दी में गद्य का विकास देर से हुआ था। भारतेन्दु युग से पहले तक कविता की भाषा ब्रजभाषा और गद्य की भाषा खड़ी बोली हिन्दी के इस प्रचलित विभाजन से भी हिन्दी गद्य के स्वाभाविक विकास में बाधा नज़र आती है, लेकिन एक बार उन्नीसवीं षताब्दी के उत्तरार्ध में गति पकड़ लेने के बाद, हिन्दी गद्य और प्रकारांतर से हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता ने अभी हिन्दी के अतिरिक्त दुनिया की किसी भी भाषा में कभी भी ऐसा विभाजन नहीं था और न ही उसे ”धर्म” से जोड़ने की अवैज्ञानिक सोच अपने तीव्र विकास में सबको पीछे छोड़ दिया और वह उत्तरोत्तर प्रगति-पथ पर अग्रसित हो गई। शीग्र ही हम हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता को आधुनिक साहित्य के सर्जनात्मक विकास में प्रेरक भूमिका निभाते हुए देखते हैं। यहाँ इस महत्वपूर्ण तथ्य को भी दृष्टिगत रखना चाहिए कि इस आधुनिक साहित्य और उसकी विविध विधाओं को लोकप्रिय बनाते हुए सामान्य पाठकों और जनसाधारण तक संप्रेशित करने में साहित्यिक पत्रकारिता की लगभग केंद्रीय भूमिका है, लोग एकदम ही साहित्यिक गद्य-विधाओं, विशेष रूप से ब्रजभाषा की तुलना में खड़ी बोली हिन्दी की आधुनिक कविता के पाठक नहीं बन गए थे, खास तौर से मुक्त-छंद और छंद-मुक्त कविता के, किताबों से पहले जनसाधारण, खासकर मध्यम वर्ग के पढ़े-लिखे लोग, साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं के नियमित पाठक बने थे ; जैसे कि उपन्यासों के पाठक बनने से पहले वे साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में छपने वाले छोटे-छोटे निबंधों, एकांकी नाटकों, प्रहसनों, टिप्पणियों,राजनीतिक व्यग्य-स्तंभों और छोटी कहानियों के नियमित पाठक बने थे स यह अनायास ही नहीं है कि राल्फ फाक्स उपन्यास को बुर्जुआ समाज में ”मध्य वर्ग का महाकाव्य” कहते हैं। इसकी शुरुआत, जैसा कि पहले भी संकेत किया जा चुका है, उन्नीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक (”उदंतमार्तंड ;1826ई0) में हो चुकी थी। 

भारतेन्दु पूर्व की अर्ध-साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं से उभरने वाली रचनाओं ने खबरों के प्रति उत्सुकता के साथ ही, लोगों में मनोरंजक और साहित्यिक रूझान वाली रचनाओं में भी रुचि जाग्रत करने में बड़ी भूमिका निभायी थी। भारतेन्दु-युग की श्रेष्‍ठ साहित्यिक पत्रकारिता ने लोगों की रुचि पढ़ने की ओलृ अधिकाधिक मोड़ते हुए उन्हें हिन्दी साहित्य के जागरूक पाठक बनाया, लोगों ने गंभीर साहित्य पढ़ने की आदत डाल ली, उन्हें टीका-टिप्पणी करने की ओर प्रेरित करके सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक रूप से जागरूक बनाया। 

साहित्य और पत्रकारिता 


साहित्यिक पत्रकारिता और साहित्य की लोकरंजनकारी भूमिका के कारण हि सामान्य पत्र-पत्रिकाएँ भी साहित्यिक विषयों को बराबर स्थान देती थीं। बीसवीं शतब्दी के उत्तरार्ध में भूमंडलीकरण के दौर की शुरुआत से, खास तौर से 1995 के बाद से निजी टेलीविज़न चैनलों और चौबिसों घंटे के न्यूज़ चैनलों के विस्फोट और फलस्वरूप हिन्दी के दैनिक अखबारों द्वारा भी, उनकी रंगारंग अंधी दौड़ की फूहड़ नकल की प्रवृत्ति ने ज़रूर आज यह स्थिति बदल दी है, जिस पर हम आगे यथावसर चर्चा करेंगे स यहाँ यह समझने की आवश्‍यकता है कि अपने आरंभकाल से ही साहित्य और पत्रकारिता का चोली-दामन का संबंध रहा है। 

पत्रकारिता का साहित्य के साथ अपने जन्मकाल से बहुत गहरा संबंध बताते हुए राकेश वत्स लिखते हैं कि मानव-यात्रा के “इसी पड़ाव पर (यानी मध्य-वर्गीय लोकतांत्रिक आंदोलनों, राजनीतिक और विचारधारात्मक विकास के पड़ाव पर) आकार साहित्य के संबल की ज़रुरत महसूस हुई स चूँकि पत्र-पत्रिकाएँ ही उसे पाठकों के उस वर्ग तक पहुँचा सकती थीं, ……. पत्रकारिता ने उसकी इस ज़रूरत को पूरा किया। वे आगे बताते हैं कि साहित्यिक पत्र-पत्रिकाएँ तो मूलतः साहित्य के प्रति समर्पित होती ही हैं, बल्कि शायद ही कोई ऐसा पत्र या पत्रिका होगी जिसमें किसी न किसी रूप में साहित्य के लिए स्थान सुरक्षित नहीं किया जाता होगा। यानी, कविता, कहानी, गज़ल, गीत, निबंध, नाटक, एकांकी, संस्मरण, यात्रा-वृतांत, शब्दचित्र, रोपोर्ताज़, पुस्तक समीक्षा, आलोचना, उपन्यास- सभी कुछ प्रायः सभी पत्र-पत्रिकाओं में छपता रहा है। उनका रूप और आकार भले भिन्न-भिन्न रहा हो। 

 जिन गैर साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं का गंभीर साहित्य की ओर रूझान नहीं था, वे भी, खासकर दैनिक और साप्ताहिक या पाक्षिक अखबार और पत्रिकाएँ भी ”फिलर” के रूप में लघु-कथाएँ, क्षणिकाएँ और व्यंग्य के नाम पर चुटकुलेबाजी, यानी ”साहित्य” के नाम पर रची जाने वाली सारी सामग्री धड़ल्ले से छापते रहे हैं। यहाँ तक कि फिल्मी समाचार पत्र-पत्रिकाएँ भी इन सबको नज़रंदाज़ नहीं करतीं थीं। कहना न होगा कि साहित्य के नाम पर छपने वाला बड़े पैमाने का यह सारा कूड़ा और स्तरहीन रचनाओं का अंबार श्रेष्‍ठ साहित्य तथा स्तरीय और प्रभावि रचनाओं का स्थान नहीं ले सकता, क्योंकि हर छपा हुआ शब्द साहित्य नहीं होता! फिर भी इससे एक माहौल बनता है, एक वातावरण निर्मित होता है। इससे साहित्य और साहित्यिक पत्रकारिता की लोकप्रियता का विस्तार होता है। लोगों में कम-से-कम पढ़ने की ललक और पाठकीय संस्कृति विकसित होती है। लोगों में साहित्य पढ़ने की आदत पड़ती है। 

साहित्यिक पत्रकारिता और ”मास-लिटरेचर” यह समझ लीजिए कि स्वयं श्रेष्‍ठ साहित्य न होते हुए भी ऐसी स्तरहीन रचनाओं का ढेर श्रेष्‍ठ रचनाओं के लिए खाद बनता है। ऐसा साहित्य खुद निकृष्‍ठ होते हुए भी पाठक-संस्कृति और साहित्यिक पत्रकारिता के विकास को गति प्रदान करता है। इसी श्रेणी में आप सस्ते और भावुकतापूर्ण रोमैंटिक उपन्यास तथा तिलिस्मी-ऐयारी और जासूसी उपन्यासों को भी शामिल कर सकते है। आचार्य शुक्ल भी इसी तथ्य को अपने ”हिन्दी साहित्य इतिहास” में रेखांकित करते हुए लिखते हैं कि, “हिन्दी साहित्य के इतिहास में बाबू देवकीनंदन (खत्री) का स्मरण इस बात के लिए सदा बना रहेगा कि जितने पाठक उन्होंने उत्पन्न किए उतने और किसी ग्रंथकार ने नहीं ”चंद्रकांता” पढ़ने के लिए न जाने कितने उर्दू जीवी लोगों ने हिन्दी सीखी ”चंद्रकांता” पढ़कर वे हिन्दी की और प्रकार की साहित्यिक पुसतकें भी पढ़ चले और अभ्यास हो जाने पर कुछ लिखने भी लगे इसीलिए प्रायः पत्र-पत्रिकाएँ धारावाहिक रूप से उपन्यास और ऐसी कहानियाँ बराबर छापते हैं। इस किस्म के साहित्य को ”मास-लिटरेचर” कहा जाता है और यूरोप तथा अमरीका के समाजशास्त्रियों ने इसकी उपयोगिता और लोकप्रियता पर अनेक दिलचस्प अध्ययन किए हैं। 

पहले ”धर्मयुग”, ”साप्ताहिक हिन्दुस्तान”, ”कादंबिनी” और ”सारिका” या विभिन्न दैनिक और साप्ताहिक समाचारपत्रों के रविवारीय पृष्‍ठों में छपने वाली चालू और स्तरहीन रचनाओं तथा ”इंडिया टुडे” (हिन्दी)- जैसी समाचार पत्रिकाओं में छपने वाली बाज़ारू रचनाओं के नियमित पाठक ही, उनकी चेतना में धीरे-धीरे विकास और साहित्यिक रुचि के क्रमषः परिश्कार के अबाद ”कल्पना”, ”प्रतीक”, ”कवि”, ”कृति”, ”कहानी”, ”नई कहानियाँ”, ”लहर”, ”पहल”,”धरातल”, ” आलोचना”,”कथा”, ”समारम्भ”, ”पूर्वग्रह”, ”कसौटी”, ” बहुवचन”, ”समस”, और ”पुस्तकवार्ता” जैसी श्रेष्‍ठ साहित्यिक पत्रिकाओं के पाठक भी बनते हैं। कहना न होगा कि इस विशाल पाठक-समुदाय की चेतना में यह विकास और उनकी साघित्यिक रुचि में परिश्कार भी ऐसी साहित्यिक पत्रिकाओं के पठन-पाठन से ही आता है। यहाँ एक विशेश बात यह भी स्मरणीय है कि ”हिन्दी साहित्य का इतिहास” इन श्रेष्‍ठ साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशित रचनाओं में से ही उभरकर सामने आता है। साहित्यिक पत्रकारिता की इस संदर्भ में ऐसी ही द्वंद्वात्मक भूमिका होती है। 

साहित्यिक रचनाओं का मूल्यांकन 



 ध्यान रहे कि साहित्यिक पत्रकारिता, रुचि का यह परिश्कार कृतियों, रचनाओं और रचनाकारों के मूल्यांकन के माध्यम से ही करती है स इस प्रकार साहित्यिक पत्रकारिता रचनाओं का स्तर निर्धारित करते हुए, अच्छी और श्रेष्‍ठ रचनाओं को स्तरहीन बाज़ारू रचनाओं के भारी-भरकम कूड़े से अलगाती है। वास्तव में, यह छँटा हुआ श्रेणीकरण के बाद साहित्य का भावी इतिहास बनता है। 

शॅापेन हॉवर ने साहित्यिक पत्रकारिता की इस अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका का उल्लेख करते हुए लिखा है कि “साहित्यिक पत्रों का कर्त्तव्य है कि वे युग की युक्तिहीन और निरर्थक रचनाओं की बाढ़ के विरुद्ध मज़बूत बाँध का काम करें। … यों कहें कि नब्बे फीसदी रचनाओं पर निर्दयतापूर्वक प्रहार करने की ज़रूरत है। साहित्यिक पत्र-पत्रिकाएँ तभी अपने कर्त्तव्य का पालन कर सकेंगे। इसी प्रसंग में वे आगे लिखते हैं कि,“ अगर एक भी ऐसा पत्र है, जो उपर्युक्त आदर्शों का पालन करता हो, तो उसके डर के मारे प्रत्येक अयोग्य लेखक, हरेक बौड़म कवि, प्रत्येक साहित्यिक चोर, हरेक अयोग्य पद-लोभी, प्रत्येक छंद दार्शनिक और हरेक मिथ्याभिमानी तुक्कड़ काँपेगा ; क्योंकि उसे इस बात का डर रहेगा कि छपने के बाद उसकी घटिया रचना खरी आलोचना की कसौटी पर ज़रूर कसी जाएगी और उपहासास्पद सिद्ध होगी। शॅापन हॉवर की यह मान्यता है निकीक इससे घटिया लेखकों को, जिनकी उँगलियों में लिखने की खुजली उठती है, लकवा मार जाएगा। इससे साहित्य का बड़ा हित होगा, क्योंकि साहुत्य में जो चीज़ बुरी है, वह केवल निरर्थक ही नहीं, बल्कि सचमुच बड़ी हानिकारक भी है, कहना न होगा कि हिन्दी की श्रेष्‍ठ साहित्यिक पत्रिकाओं और हमारे श्रेष्‍ठ समालोचकों ने ठीक यही भूमिका निभाई है। 

साहित्य का इतिहास और पत्रकारिता इस प्रकार, साहित्यिक पत्रकारिता, जो आज साहित्य के इतिहास की स्रोत-सामग्री और कल का साहित्येतिहास है, दृढ़तापूर्वक अच्छी और बुरी रचनाओं, प्रवृत्तियों तथा साहित्यिक आंदोलनों के बीच निर्णायक फर्क दिखाकर साहित्य के इतिहास के निर्माण में भी अपनी अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, साहित्यिक पत्रकारिता, इस तरह, स्तरहीन रचनाओं से स्तरीय और अप्रासंगिक कृतियों से प्रासंगिक लेखन को अलग करती है। 

 वस्तुतः युग-विशेश की साहित्यिक पत्रकारिता से ही उस युग के साहित्यिक आंदोलनों, बहस-मुबाहिसों, साहित्यिक समस्याओं, प्रश्‍नों और चुनौतियों तथा इन सबके फलस्वरूप उस युग की नई-से-नई साहित्यिक प्रवृत्तियों के उभरने, उनके क्रमश: विकास तथा विभिन्न साहित्यिक प्रवृत्तियों के आपसी अंतर्विरोधों और अंतर्द्वंद्वों का भी अंतरंग परिचय हम पा सकते हैं। यह युग-विशेश की साहित्यिक पत्रकारिता ही है, जो हमारे समक्ष उस युग-विशेश का भरा-पूरा और कलात्मक प्रतिबिंब प्रस्तुत करती है। इससे हमें अपनी समकालीन समस्याओं और चुनौतियों को समझने में मदद मिलती है तथा भविष्‍य के सर्जनात्मक संघर्षों का परिप्रेक्ष्य भी। 

संदर्भ:– 1) ”उपन्यास और लोकजीवन”, राल्फ फाक्स ; पीपीएच, नई दिल्ली, पृ0 31 
2) ”जनसंचार”, (सं0) राधेष्याम शर्मा ; राकेश वत्स का लेख ; हरियाणा साहित्य अकादमी, पृ0 201 
3) उपर्युक्त , पृ0 205-06
 4) उपर्युक्त, पृ0 206 
5) ”हिन्दी साहित्य का इतिहास”, रामचन्द्र शुक्ल ; प्रकाशन संस्थान, नयी दिल्ली, प्र0 356-57 
6) ”हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता”, शीर्षक लखनऊ विश्‍वविद्यालय की जन-संचार एवं पत्रकारिता विषय की प्रथम पी-एच0डी0 डिग्री के शोध-प्रबंध (प्रो0 श्‍याम कश्‍यप) से। 7) उपर्युक्त 8) उपर्युक्त ———————————————————-

साभार : श्याम कश्यप

Post a Comment

0 Comments
* Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.